Friday, September 9, 2011

मातृभूमि



प्रस्तुत हैं वंदे मातरम के कुछ अंश !
‘नदी सबको सुदूर तक पवित्र, गंदी करते उसी के पुत्र।’’

इन पंक्तियों में कवि ने अनोखी पीढ़ियों द्वारा दिए गए अनादर की तथा किसी तेजस्वी आवधारणा की छीछालेदर के कारण उत्पन्न होनेवाली व्यथा का वर्णन किया है। हमारी ‘वंदे मातरम्’ की अवधारणा तथा उसका प्रतीक बने गीत के बारे में कुछ ऐसा ही हुआ है। बात कड़वी किंतु एकदम सत्य है, हमारा इतिहास साक्षी है।




इस अप्रतिम पुस्तक में हमारी इस अवधारणा का, उसकी तेजस्विता का—उसकी जो छीछालेदर की गई और फलस्वरूप जो अनादर की भावना पैदा हुई—सबकी समीक्षा की गई है। सभी पहलुओं से इन सब बातों को देखा-परखा तथा तलाशा गया है। यह एक विलक्षण ‘अन्वेषण यात्रा’ ही है। बेसिर-पैर का कुछ नहीं लिखने की अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार लेखक ने अपनी प्रत्येक बात के लिए सशक्ति प्रमाण प्रस्तुत किए हैं, ठोस आधार पेश किए हैं। ‘वंदे मातरम्’ मातृभूमि की उत्कटता से किया गया वंदन है। वह भारत में ही विवाद का विषय क्यों बना दिया गया है ? इस प्रश्न का उत्तर खोजते समय इस पुस्तक में प्रस्तुत तथ्यों के परिशीलन की तथा सारे मामले पर पुनर्विचार करने की प्रबल इच्छा युवा पीढ़ी के अंतरतम में जाग जाए और देशवासियों के मन में पैदा हो जाए तो लेखक का परिश्रम सार्थक होगा।




‘वंदे मातरम्’ मातृभूमि का स्तवन गीत है। ‘भारत’ जैसी प्राचीन भूमि की वंदना करने के लिए रचा और गाया गया है। हमारी इन्हीं अस्मिताओं को नष्ट करने के लिए ही आक्रांताओं ने हमें नीचा दिखानेवाला अप्रचार किया कि ‘अरे, क्यों बेकार में मिट्टी और पेड़-पत्थरों को पूजते हो ? यह तो निराजंगलीपन है, अनाड़ीपन है।’

किंतु भारताचार्य श्री चिंतामणराव वैद्य जैसे इतिहासकार द्वारा लिखित ‘महाभारत का उपसंहार’ शीर्षक सूक्ष्म अध्ययन ग्रंथ में समप्रमाण दिखाया गया है कि मातृभूमि की पूजा एक अत्यंत शास्त्र-शुद्ध संस्कार है। इसके लिए श्रीकृष्ण इंद्र के स्थान पर गोवर्धन पर्वत की पूजा करने के प्रसंग का उन्होंने संदर्भ दिया है। तब इंद्र को ही ‘जलदेवता’ मानकर पूजा जाता था। उस परंपरा की लीक से हटकर बालक श्रीकृष्ण ने बड़ी दूरदेशी तथा साहस के साथ गोवर्धन पर्वत की, ‘अर्थात्’ ‘भूमि’ की पूजा करने की प्रेरणा तथा परिपाटी लोगों को दी। इसमें निहित विज्ञान का खुलासा भारताचार्य ने इस अध्ययन में किया है। यहाँ उसका केवल सारांश देना पर्याप्त होगा—





‘‘पंचमहाभूतों’ में ‘आकाश’ तत्त्व का एक ही गुण है ‘शब्द’। ‘वायु’ तत्त्व में ‘स्पर्श’ के साथ दो गुण हैं। ‘तेज’ तत्त्व में ‘रूप’ सहित तीन गुण, ‘जल’ तत्त्व में चौथे गुण ‘रस’ के समेत चार गुण तथा ‘पृथ्वी’ तत्त्व में ‘गंध’ गुण के समेत पाँच महाभूतों के सभी पाँचों गुणों का समुच्चय होता है। ‘पृथ्वी’ में शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गंध आदि पाँचों गुणों के अस्तित्व के कारण ‘भूमि’ समूचे विश्व की प्रतिनिधिक परिपूर्ण शक्ति है। वही जीवनदायिनी है, जीवन की निर्मात्री है। इसीलिए वह पूजनीय है। ‘इस तरह पूर्ण वैज्ञानिक खुलासा करते हुए भारताचार्य ने श्रीकृष्ण द्वारा रखे गए भूमिपूजन के आग्रह का वैज्ञानिक स्पष्टीकरण दर्ज कर रखा है।

ऐसी परम वंदनीय मातृभूमि के भक्तिपूर्ण पूजन का विरोध भारत के इतिहास में कभी नहीं हुआ था। किंतु 1920 के बाद प्रस्तुत ‘प्रादेशिक राष्ट्रवाद’ (Territorial Nationalism) के सिद्धांत के कारण यह प्रारंभ हुआ। ‘यही हमारी मातृभूमि है’, ‘यह अत्यन्त मनस्वी सांस्कृतिक अवधारणा है। वह अन्य देशों में भी थी—और आज भी है। प्रख्यात कवि सर वाल्टर स्कॉट ने यों ही नहीं कहा—‘‘Breathes there the man with soul so dead, who never to himself has said, This is my motherland,’’ ‘मेरे प्यारे वतन’ गीत दिलों को यों ही नहीं छू जाता। वह निरी भावुकता नहीं होती, एक गहरा रचा-बसा संस्कार होता है। किंतु इस ‘प्रादेशिक राष्ट्रवाद’ का अधिष्ठान केवल प्रतिक्रियात्मक ही था। ‘जिस प्रदेश पर अंग्रेजों का राज्य उन दिनों था, वह भू-प्रदेश यानी हमारा राष्ट्र और उसमें रहने वाला हर व्यक्ति ‘राष्ट्रीय’ यह अवधारणा जनमानस में व्याप्त करने का प्रयास किया गया। अतः अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता का संग्राम इस प्रदेश में रहनेवाले सभी गुटों को मिलकर लड़ना चाहिए, यह प्रमाणिक किंतु वास्तविकता से पूरी तरह से विसंगत भ्रांति इस अवधारणा की जड़ थी। इसीलिए अंग्रेजों की सत्ता के विरोध में सबको एकजुट करने के प्रयास किए जाते रहे।

इन प्रयासों में एक खामी यह रह गयी कि इस पर एकजुट होने के लिए मातृभूमि की भक्ति, एक संस्कृति, एक इतिहास, एक जैसे सुख-दुःख, समान श्रद्धा केन्द्र, एक जैसी आकांक्षाएँ और एकजुट रहने की हार्दिक इच्छा आदि किन्ही बुनियादी बातों की आवश्यकता होती है। इस ध्रुव सत्य को ध्यान में नहीं रखा गया। परिणामतः एक प्रादेशिक राष्ट्रवाद की अवधारणा में एक ऐसा आग्रह पैदा हुआ कि ‘केवल अंग्रेजों का राज्य जिस प्रदेश पर है, उस प्रदेश के सभी लोग केवल इसलिए कि सबका शत्रु एक ही है, संगठित हो जाएँ। इसका स्वाभाविक परिणाम था कि ऐसे लोगों के किसी भी गुट को चोट न पहुँचे, केवल इसी विचार से अनेक बातों को, उनके अच्छी होने के बावजूद, छोड़ देने की मानसिकता बनाई जाने लगी। भीषण बाढ़ के प्रकोप में एक ही पेड़ पर सहारा लिए बैठे साँप और आदमी ‘भाई’ नहीं बन जाते। ‘एक शत्रु’ वाली भावना अस्थायी होती है और वह तात्कालिकता समाप्त होते ही समाप्त भी हो जाती है, या भुला दी जाती है।





इसी मानसिकता से ‘वंदे मातरम्’ जैसे प्रेरणा देनेवाले गीत का विरोध किया जाने लगा और उसे राष्ट्रीय गीत के नाते स्वीकार करने की बात को छोड़ देने योग्य माना गया, जिसके कारण राष्ट्रीय जनमानस में एक चुभन गहरे तक चुभ गई। इन सभी घटनाओं का क्रमवार ब्योरा इस पुस्तक में अचूक, दो टूक और आँखों में अंजन डालनेवाले रूप में संकलित किया गया है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय संघसंचालक श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर गुरुजी ने इंदौर में आयोजित एक अध्ययन-शिविर में मार्च 1960 में एक भाषण दिया था। विषय था-‘क्या राष्ट्रभावना के बारे में कोई समझौता किया जाय ?’ गुरुजी ने कहा था, ‘किसी परिस्थिति वश अपने सिद्धांतों में परिवर्तन करने का विचार मन में लाने का अर्थ है अपनी हार को स्वीकार करना। इस प्रकार एक बार जिसने अपनी परिस्थिति के सामने हार मान ली, उसमें उस स्थित को बदलने की क्षमता भला कैसे रह सकती है ! हमारे देश में लोकतंत्र आ गया। परिणामतः अहिंदू समाजों को, वे भले ही अल्पमत क्यों न हों, एक तरह से महत्त्व प्राप्त हो सकता है। किंतु उन्हें यों ही प्राप्त महत्त्व को ध्यान में रखकर और उससे लाभ उठाने के लिए क्या अपने सिद्धांतों में कोई परिवर्तन करने की आवश्यकता है ?’

सन् 1950 में मैसूर तथा बैंगलूर में महाविद्यालयीन छात्रों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था, ‘‘राष्ट्रनिष्ठा एक सकारात्मक स्थायी भाव बनना चाहिए। आज राष्ट्रनिष्ठा को ब्रिटिश-विरोधी, प्रतिक्रियावादी एवं नकारात्मक स्वरूप प्राप्त हो रहा है। एक महीने की ही बात है, किसी भी विषय पर जी चाहे जैसे भाषण देने वाले एक महान् उच्च पदस्थ नेता ने कहा था कि ‘मैं ‘राष्ट्र’ शब्द का अर्थ नहीं जानता। राष्ट्रभक्ति के आधार पर संघर्ष करने के लिए अंग्रेज यहाँ थे तब तो ठीक था, किंतु अब उनके भारत छोड़कर चले जाने के बाद इस राष्ट्र भावना का क्या अर्थ रह जाता है ?’’

ये दोनों उदाहरण प्रादेशिक राष्ट्रवाद की प्रतिक्रियात्मक एवं अप्राकृतिक अवधारणा की सुस्पष्ट कल्पना देनेवाले हैं। राष्ट्र के बारे में इसी भ्रामक विचार के कारण ही ‘वंदे मातरम्’ गीत की बहुबल धारिणीं रिपुदलवारिणीं, तुमि विद्या तुमि धर्म, तुमि हृदि तुमि मर्म’, ‘त्वं हि दुर्गा दशप्रहरधारिणीं’ आदि पंक्तियों का विरोध करने वाले अहिंदुओं का तुष्टीकरण करने के लिए गीत के उन पंक्तियों को छोड़ देने का निर्णय किया गया। यह एक कटु सत्य है। ‘सुजलां सुफलां मलयजशीतलां, शस्यश्यामलां’ तथा ‘शुभ्र ज्योत्सना पुलकितयामिनीं फुल्ल कुसुमित द्रुमदलशोभनीं, सुहासिनीं सुमधुर भाषणीं, सुखदां-वरदां’ ये गीत चरण प्रकृति रम्य विशेषणों से युक्त हैं और मात्र समझौते के लिए ही उन्हें गीत में रहने दिया गया है। अन्यथा तुष्टीकरण के लिए लालायित तत्त्वों ने तो समूचा गीत ही नियम बाह्य करार देने का आग्रह किया था और नरम पंथियों ने उसे स्वीकार भी कर लिया था। इसके काफी प्रमाण पुस्तक में दिए गए हैं। एक ऐतिहासिक सत्य है कि जिनके दुराग्रह पर इस मंगल गीत का अवमान किया गया, आखिर उन्हींने तीस वर्ष के अंदर ही मातृभूमि को विभाजित कर दिखाया।

निष्पक्ष रूप से यह बात कहना आवश्यक हो गया है। कभी तो यथार्थ नयी पीढ़ियों के सामने आना ही चाहिए। सन् 1990 में पुणे में अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन हुआ था। उसमें गायक ने ‘वंदे मातरम्’ के प्रथम दो चरण गाए। उसने तीसरा चरण प्रारंभ ही किया था कि उसका गायन रोक दिया गया। रोकनेवालों में अग्रणी थे पं. लक्ष्मण शास्त्री जोशी और उनका समर्थन कर रहे थे सर्वश्री वामनराव चोरघडे, पु.ल. देशपांडे, ग.प्र. प्रधान, मोहन धारिया आदि। लेकिन सभागार के पिछले हिस्से में उपस्थित श्रोताओं ने चिल्लाकर माँग की, ‘संपूर्ण वंदे मातरम् गाइए।’ अंत में विरोधियों द्वारा घी में डाली गई इस मक्खी को निकाल फेंकने के इरादे से स्वागत कक्ष में समारोह समाप्ति की घोषणा कर डाली। बाद में लोग गुटों में चर्चा करते पाए गए। पूर्व पूर्वाध्यक्ष ने कहा, ‘‘यह भी कोई संघ का कार्यक्रम था जो संपूर्ण वंदेमातरम् गाया जाता !’ एक अन्य विचारक ने उनसे पूछा, भारी सभा के चलते ऐसे गीत को बीच में ही रोक देना कहाँ तक उचित था ?’ तो पूर्वाध्यक्ष ने कहा, ‘उसका अधिकार तो तर्कतीर्थजी को है ही।’ शायद उन्हें लग रहा था ‘जितं मया।’ यह लज्जास्पद घटना इस ‘आवश्यक साफगोई’ में शायद अन्यथा नहीं दी जाती। किंतु भ्रमित प्रादेशिक राष्ट्रवाद की परिणति कितनी बीभत्स होती गई, यह बात ध्यान में लाने के लिए उसे यहाँ देना आवश्यक लगा। किसी को लड़ियाने की खातिर क्या हम अपनी माँ को माँ कहना छोड़ दें ?

इस पुस्तक को पढ़ते समय पाठकों के ध्यान में निश्चय ही आ जाएगा कि अपनी विदेश यात्रा के बाद भारत लौटने पर इस भूमि को चूमने वाले स्वामी विवेकानंद ने ‘अपनी प्रिय मातृभूमि को ही कुछ समय के लिए एकमेव देवता मानकर उसके चारों ओर हम एक जुट खड़े हो जाएँ’, ऐसा आह्वान क्यों किया होगा ? मित्रवर मिलिंद प्रभाकर सबनीस ने अत्यंत परिश्रमपूर्वक इस पुस्तक द्वारा इस प्रेरणादायी मातृ-स्तवन का अन्वेषण किया है और सारा अन्वेषण पाठकों के लिए नए सिरे से उपलब्ध कराया है। इसके लिए सभी राष्ट्रभक्तों को चाहिए कि उनके चिर ऋणी रहें और संपूर्ण ‘वंदे मातरम्’ गीत का भावार्थ अपने हृदय में सँजोकर रख लें।


1 comment:

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